Zenab rehan

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दूसरा अध्याय




जो कुछ तर्क युक्ति दी है उससे यह साफ हो जाता है कि जब सभी आत्माएँ मौजूद ही हैं तो वर्तमान के लिए तो कोई बात हई नहीं। रह गई भूत और भविष्य की बात सो तो साफ ही कह दिया है कि न तो पहले ही ऐसा कोई समय था जब हम सभी मौजूद न थे और न आगे ही ऐसा वक्त होगा जब हम न रहें। नतीजा यह हुआ कि जो पदार्थ सभी समयों में रहे वह तो नित्य एवं अविनाशी ही हुआ। नित्य या अविनाशी का लक्षण ही यही है कि जो तीनों कालों में - सदा - रहे। फिर आत्मा के मरने का सवाल आता ही कहाँ से है? मरने का अर्थ ही है न रहना, और आत्मा को तो आगे भी सदा रहना ही है।

यदि किसी का खयाल हो कि पहले वाली आत्मा दूसरी थी, वर्तमान वाली और ही है और आगे तीसरी ही होगी। भूत, वर्तमान, भविष्य में एक ही कैसे रहेगी? भूत, वर्तमान और भविष्य की शरीरें तो निश्चय ही तीन हैं। फिर उनमें रहने वाली आत्माएँ भी तीन क्यों न हों? तो उसका उत्तर यह है कि -

देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।

तथा देहांतरप्राप्ति र्धीर स्तत्र न मुह्यति॥ 13 ॥

जिस तरह आत्मा या जीव के इस शरीर की लड़कपन, जवानी, बुढ़ापा (ये तीन दशाएँ होती हैं), ठीक उसी तरह दूसरी देहों - जन्मों की प्राप्ति भी है। (इसलिए) उस बात में समझदार (कभी) धोखे में नहीं पड़ता है। 13।

इसके संबंध में ज्यादा बातें पहले ही कही जा चुकी हैं और यह बात खूब साफ की जा चुकी है। कहने का निचोड़ यही है कि जिस प्रकार इस जन्म में बालपन, बुढ़ापा और जवानी के तीन विभिन्न एवं भूत, वर्तमान तथा भविष्य कालवर्ती शरीरों में एक ही आत्मा सभी मानते हैं, जरा भी शक नहीं करते और न धोखे में पड़ते हैं। ठीक उसी प्रकार तीन या ज्यादा जन्मों की भूत, वर्तमान और भावी देहों में भी एक ही आत्मा क्यों न मानी जाए? तर्क-युक्ति तो दोनों जगह एक ही है। एक शरीर की तीनों अवस्थाएँ भूत, वर्तमान और भविष्य की तो हईं। बाल्यावस्था की अपेक्षा यद्यपि जवानी एवं बुढ़ापा भविष्य की चीजें हैं। फिर भी बाल्य के गुजरने पर जवानी ही वर्तमान होती है, बालपन भूत और बुढ़ापा भावी। श्लोक में तीन अवस्थाएँ जो शरीर की दिखाई गई हैं वह एक दूसरे से बिलकुल ही जुदी हैं और उन्हीं में सारा शरीर गुजर जाता है। इन तीन अवस्थाओं से यहाँ कोई खास मतलब यह नहीं है कि कितने वर्ष तक कौन-सी रहती है। यहाँ बाल की खाल खींचना है नहीं।

इस प्रकार तर्क दलीलों से आत्मा की अमरता सिद्ध हो गई। मगर संसार का काम सिर्फ तर्क दलीलों से ही तो नहीं चलता। यहाँ तो कुछ ठोस बातें हैं जिनसे इनकार किया जा सकता है नहीं, और उन्हीं के अनुसार यह बराबर देखा जाता है कि प्रियजनों के संयोग-वियोग से सुख-दु:ख होते ही हैं। चाहे आत्मा अमर हो या उससे भी बढ़ के हो। मगर शरीरांत होने पर सगे-संबंधियों को अपार कष्ट होता ही है, और यही बात इस युद्ध के चलते विस्तृत रूप में होने वाली है। फिर क्यों न इससे किनाराकशी की जाए? भीष्मादि कहने से शरीर भी तो लिए ही जाते हैं और उनका नाश होता ही है। इसी बात का उत्तर यों देते हैं -

मा त्रा स्पर्शास्तु कौंतेय शीतोष्णसुखदु:खदा:।

आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत॥ 14 ॥

हे कौंतेय, भौतिक पदार्थों के संबंध सरदी-गरमी की तरह कभी सुख और कभी दु:ख देते रहते हैं (जरूर)। मगर यह ठहरे तो आने-जाने वाले ही और इसीलिए चंदरोजा ही। (अतएव) इन्हें तो बरदाश्त करना ही होगा हे भारत! 14।

मात्र स्पर्श ही गीता (5। 21-22) में बाह्य स्पर्श कहा है। स्पर्श नाम है संबंध का। बाह्य कहते हैं भौतिक को। वहीं देखने से यह साफ हो जाता है।

यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।

समदु:खसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते॥ 15 ॥

क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ, सुख-दु:ख में एक रस रहने वाले जिस पुरुष को ये पदार्थ उद्विग्न नहीं कर पाते वही अमृतत्व - मुक्ति - प्राप्त करता है। 15।

'सम दु:ख-सुख' का यह मतलब नहीं कि दोनों को एक बना दें। ऐसा तो होना असंभव है। दोनों दो चीजें हैं। फिर एक कैसे होंगी? यह भी न कि दु:ख या सुख जरा भी मालूम ही न हों। चेतन पुरुष के लिए यह भी अनहोनी चीज है। किंतु जैसे पानी की लकीर बनते ही मिट जाती है ठीक वैसे ही दिल-दिमाग पर जब ये दोनों नाममात्र का ही असर करें तभी मनुष्य सम दु:ख-सुख कहा जाता है। सारांश यह कि दिल-दिमाग की गंभीरता (serenity or balance) को ये बिगाड़ न सकें। यही गीता का साम्यवाद है जो अभी पहली बार आया है।

इस प्रकार आत्मा को अविनाशी या नित्य और शरीरादि को अनित्य तो बता दिया। इससे काम भी चल गया। मगर कौन-सा पदार्थ नित्य और कौन-सा अनित्य है इसे कौन जानें? हरेक पदार्थ को गिन-गिन के देखना और समझना तो असंभव है। क्योंकि पदार्थ ठहरे अनंत। फिर सभी को जाना कैसे जाए? और अगर किसी को न जान सके तो उसी को लेकर भ्रम और गड़बड़ हो सकती है कि यही आत्मा तो नहीं है? इस तरह अनिश्चय का वायुमंडल बना रह सकता है। फलत: पूर्व के प्रतिपादन से पूरा काम चलता दीखता नहीं। इसीलिए एक तो नित्य और अनित्य या सत्य और मिथ्या के बारे में कोई दार्शनिक नियम, लक्षण तथा परिभाषा चाहिए। ताकि बेखटके पहचान हो सके। दूसरे, आत्मा की पहचान भी पक्की होनी चाहिए कि वह कौन है। नहीं तो शायद घपला हो जाए। ऐसे मामले में जितनी सफाई हो जाए उतना ही अच्छा।

एक बात और भी है। ऐसी शंका कर सकते हैं कि यह क्यों न माना जाए कि इस शरीर में जो आत्मा है उसका अस्तित्व इससे पहले न था? वह अस्तित्व तो पहले-पहल इसी शरीर में ही आया है, हुआ है। इसी तरह यह भी क्यों न मान लिया जाए कि इसी शरीर के अंत के साथ आत्मा का भी अंत हो जाता है और आगे उसे पा नहीं सकते? यह भी प्रश्न हो सकता है। अतएव इसका पूरा-पूरा समाधन हो जाना जरूरी है। आगे के 16वें से लेकर 25वें श्लोक तक यही बात समझाई गई है। उसमें भी पहले शुरू किया है इस आखिरी शंका को ही लेकर कि इस शरीर में जो आत्मा है वह पहले न थी।

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:।

उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्त त्त्व दर्शिभि:॥ 16 ॥

जो पदार्थ पहले न हो उसका अस्तित्व होई नहीं सकता - वह बनी नहीं सकता, (और) जो मौजूद है - सत्तावाला है - उसका नाश या खात्मा भी नहीं हो सकता। इन दोनों बातों का निर्णय तत्त्वदर्शी लोगों ने (ही) कर दिया है। 16।

यहाँ अंत शब्द तत्त्वदर्शी शब्द के साथ होने से निश्चय या निर्णय के ही अर्थ में आया है। क्योंकि तत्त्वदर्शी तो दार्शनिक होते हैं। जिस बात का आखिरी फैसला वाद-विवाद के बाद कर लेते हैं उसे ही सिद्धांत, राद्धांत तथा कृतांत भी कहते हैं। इन तीनों शब्दों का एक ही अर्थ है। वह यह है कि जिन पदार्थों के बारे में अंत या अंतिम बात हो चुकी, फैसला हो चुका वही सिद्धांत है। 'सांख्ये कृतांते' (18। 13) में कृतांत शब्द और उसके अंत शब्द का यही अर्थ है।

इस तरह सिद्ध हो जाता है कि यदि आत्मा नाम का कोई पदार्थ पहले न होता तो उसका अस्तित्व इस शरीर में होता ही नहीं। इसी तरह जब यहाँ वह है तो आगे भी रहेगा। क्योंकि जो चीज है वह खत्म हो नहीं सकती। इसलिए आत्मा अनित्य है। उसकी पहचान यों है -

अविनाशि तु त द्धिद्धि येन सर्वमिदं ततम्।

विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्क र्त्तु मर्हति॥ 17 ॥

अविनाशी तो वही वस्तु - आत्मवस्तु - जानो जो इस समूचे जगत को फैलाती, बनाती है और जो इसमें व्याप्त है - इसकी रग-रग में घुसी है। इस अविनाशी - निर्विकार - का नाश कोई भी कर नहीं सकता। 17।

जो सभी पदार्थों का स्व है, निजी रूप है, अपना रूप है, स्वरूप है वही तो उसकी आत्मा है, सबकी आत्मा है। यह स्व कहाँ नहीं है? यह तो सभी जगह है, सभी में है। आखिर अपना तो सभी का कुछ न कुछ होता ही है। इसीलिए वह आत्मा अविनाशी है। क्योंकि स्व तो रहेगा ही। और नहीं, तो जो पदार्थ नष्ट होगा उसके नाश की हस्ती, सत्ता तो रहेगी ही और वह भी तो स्व है। कभी पदार्थ के रूप में वह स्व, वह आत्मा नजर आती है तो कभी पदार्थ के नाश के रूप में कभी विधि रूप में (Positively) तो कभी निषेध रूप में (negatively)। इसीलिए तो उसे अविनाशी और नित्य मानना ही होगा। ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि कभी यह स्व, यह आत्मा रहेगी न। क्योंकि जब कुछ न होगा, तो और नहीं तो न होने का स्व या अस्तित्व तो रहेगा ही। कम से कम उसे तो उस समय मानना ही होगा। नहीं तो यह कहेंगे कैसे कि कुछ नहीं रह गया है? इसीलिए उसे नाश की आत्मा मान के नित्य और अविनाशी मानते है। जब विधि और निषेध उसी के रूप हैं और सभी पदार्थ भी उसी के हैं तो यह भी ठीक ही है कि उसी ने सबका प्रसार किया है, जगत का यह ताना बाना फैलाया है।

मगर शरीर, घड़ा, कपड़ा, रोटी, जमीन वगैरह की क्या हालत है? ये तो सर्वत्र फैले हैं नहीं। शरीर में कपड़े का, कपड़े में शरीर का पता कहाँ है? दोनों में घड़े का और घड़े में भी दोनों की सत्ता है कहाँ? इसी प्रकार सभी पदार्थों को एक-एक करके देख सकते हैं। यहाँ तो अपनी-अपनी डफली बज रही है। किसी का किसी से ताल्लुक नहीं है, नाता-रिश्ता हई नहीं। सभी अपने ही तक सीमित हैं। यह तो घोर विभिन्नता है, अजीब जुदाई है, निराली फूट है। यह अनोखा गृहयुद्ध (Civil war) है भयंकर गृहकलह है। यही तो वास्तविक कौरव-पांडव का महाभारत है। यहाँ कोई किसी को पूछता नहीं। फलत: सभी आपस में एक दूसरे से टकरा के खत्म हो जाते हैं। कभी घड़े से टकरा के शरीर खत्म होता है, तो कभी शरीर से टकरा के घड़ा और दोनों से टकरा के कपड़ा। यही हालत सभी पदार्थों की है। ठीक ही है। मेल में, ऐक्य में जीवन है, जिंदगी है, सृष्टि है। परमाणुओं का परस्पर या प्रकृति का पुरुष से संयोग होने से ही मेल होने से हो तो सृष्टि होती है। विपरीत इसके उनकी जुदाई या पार्थक्य होने से ही प्रलय होती है, विनाश होता है। जब गुण आपस में मिलते हैं तभी सृष्टि होती है और ज्योंही तन गए कि प्रलय आ धमकी। यही बात जगत के सभी पदार्थों की है। मगर इन सभी के भीतर मालिक बनके स्व बैठा है, आत्मा मौजूद है और इन बच्चों के घरौंदों के बनने-बिगड़ने का तमाशा देख रही है। वह निरंतर न रहे तो आखिर यह तमाशा देखे कौन? यही बात इस तरह कहते हैं -

अंतवंत इमे देहा नित्यस्योक्ता: शरीरिण:।

अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माषु ध्य स्व भारत॥ 18 ॥

इन शरीरों के मालिक अविनाशी तथा अचिंत्य (आत्मा) के ये शरीर तो विनाशी ही कहे गए हैं - माने गए हैं - । इसलिए युद्ध करो हे अर्जुन! 18।

जब इन शरीरों का नाश होना ही है तो फिर युद्ध में आनाकानी क्यों? ये शरीर अगर लड़ाई में खत्म न हुए तो कहीं और ही जगह दूसरी ही चोट खा के या बीमारी से ही खत्म होंगे ही। और नहीं तो बिजली गिरने, पानी में डूबने या हिंसक जानवरों के आक्रमण से ही खत्म होंगे। तब हर्ज ही क्या कि यहीं रणांगण में खत्म हों? फर्क इतना ही है कि यहाँ 'समर मरण अरु सुरसरि तीरा। राम काज क्षणभंग शरीरा।' है। यहाँ मरने से यश है, शान है, कर्तव्य पालन का संतोष है, मनस्तुष्टि है, और अंत में सद्गति है। मगर और जगह दूसरी तरह मरने में यह बात नहीं होने से जबर्दस्त घाटा है। इसलिए जरूर लड़ो।

आत्मा को जो अप्रमेय कहा है और जिसका अर्थ है कि बुद्धि या दिमाग भी जिसे पकड़ नहीं सकता, जो उसकी भी पहुँच के बाहर की चीज है, उसका मतलब साफ है। यदि वह किसी की पकड़ या कब्जे में आ जाए तो एक तो उसका स्वातंत्र्य जाता रहे। दूसरे पराधीन होने पर वह जिसके अधीन होगी उसके हाथों उसका सब कुछ किया जा सकता है, यहाँ तक कि खात्मा भी। दिमाग या बुद्धि आदि भी तो शरीर आदि की तरह भौतिक पदार्थ ही ठहरे, जिनकी अपनी-अपनी खिचड़ी अलग पकती रहती है। इसीलिए उनका खात्मा भी होता है। और अगर आत्मा भी उनकी मातहती में आ जाए तो वह कैसे बच पाएगी? तब तो उसकी खैरियत न होगी लेकिन यहाँ तो बात ही दूसरी है। बुद्धि भले ही चली जाए, खत्म हो जाए। मगर उसके स्व को निषेध रूप में रहना ही है और वही स्व है आत्मा। फिर आत्मा बुद्धि के पंजे में कैसे रहे? वह तो साफ ही उसकी पहुँच से बाहर है। यही कारण है कि उसके बारे में तरह-तरह के खयाल होते हैं। कोई उसे मरणशील मानता है, तो कोई उसे मारनेवाली ही कहता है। कोई नित्य मानता है, तो कोई अनित्य। जब बुद्धि ठोकरें खा के वहाँ तक पहुँची नहीं सकती, तो आखिर और हो ही क्या सकता है? जब वहाँ तक बुद्धि पहुँचती ही नहीं तो उसे मारने-मरने वाली कहना केवल नादानी है, उलटी बात है। क्योंकि इससे तो ऐसा हो जाता है कि बुद्धि ने उसे पहचान लिया है, उसकी हकीकत जान ली है, वह उस तक पहुँच चुकी है। मारने-मरने की बात तो शरीरादि में ही है और यह है आपसी टक्कर, जैसा कि अभी कहा है। आत्मा में यह बातें मानना कोरा अज्ञान है, मूर्खता है। यही बात आगे यों लिखी हैं -

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।

उभौ तौ न विजानीतो नायं हंति न हन्यते॥ 19 ॥

(इसलिए) जो इस आत्मा को मारनेवाली मानता है और जो इसे मरनेवाली समझता है उन दोनों ही को असलियत मालूम नहीं है। क्योंकि यह तो न मारनेवाली है (और) न मरनेवाली। 19।

न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूय:।

अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥ 20 ॥

(क्योंकि) यह (आत्म वस्तु) न तो कभी जनमती है और न मरती है (और यह भी इसीलिए कि) यह पहले न रह के पीछे होती जो नहीं और हो के उसके बाद नहीं रहती भी नहीं। इसीलिए यह जन्मरहित, नित्य-काल से जो घिरी न हो - हमेशा रहने वाली और प्राचीन (से भी प्राचीन) चीज है (जो) शरीर नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होती। 20।





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